Tuesday, June 21, 2011

कवि की कल्पना

सौन्दर्य की प्रतिमान, 
वो विश्व कमल की म्रिदुल मधुकरी।
वो अन्नत रह्स्यो की मुर्ति,
वो स्वर्ग लोक की चंचल परी।।
एक रात चुपके से चलकर,
मेरे पास आई थी।
बहुत नजदीक थी मेरे,
मगर एक गहरी खाई थी॥
उस पार पहुचना मेरे,
वश की बात नही थी।
पर कवि की उन्मत भावों के,
रुकने की रात नही थी।।
लेखनी की नौका से,
कवि जब उस पार गया।
एह्सास हुआ भोलेपन का,
खुद से ही मै हार गया।।
वह तो बस कल्पना थी,
कवि ह्रदय की छवि थी।
जाते जाते कहती गयी,
शायद वो भी कवि थी।।
भाव जगत मे ढुढो मुझको,
मै हरदम भावों मे मिलती।
तेरे ह्रिदय की कल्पना की,
धुप और छावों मे मिलती।।
निज परीवेश मे तुमको,
ऐसा एहसास नही मिलेगा।
जब भी मेरे पास आओगे,
कोई पास नही मिलेगा।।
विश्व के तम का सुन्दरतम रहस्य,
मै कल्पना लोक की परी हु।
मै ही कविता, मै ही सरिता,
कवि ह्र्दय मे भाव भरी हुं॥
मुझे देख-देख कर कवियों ने,
कितने ही गीत सजाये है।
पर जिसने कोशिश की छुने की,
मुझे ढुढ नही पाये है॥
यह असीम जगत माया है,
तेरे अन्दर है जग सारा।
यथार्थ की भुमी पर,
कुछ भी नही है तुम्हारा॥
मत पकडो किसी को भी,
वो तितली बन उड. जायेगा।
बस फुल बन खिल जाओ,
तेरे चारो ओर मंडरायेगा॥
कवि तेरा क्या, तुम तो,
भाव भंवर मे लहराते हो।
सौन्दर्य की प्रतिमा के,
न जाने कितने रुप सजाते हो॥
तेरी लेखनी की छाया मे,
कितने ही संगीत बने।
कितने ही दिल टुट गये,
कितने ही मनमीत बने॥
फुलो ने स्रिगार किया,
भौरों को उपहार मिला।
मन सवेदनशील हूआ,
बागों को बहार मिला॥
लौट आया मै वापस अपनी,
गरिमा कि छाया मे।
पर न जाने क्यु बसती है,
कल्पना मेरी काया मे॥
                मिथिलेश राय

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