ओशो के संदर्भ में

ओशो का उत्पन्न होना एक अद्भुत एवं महानतम घटना थी यह मानना है उनके अनुयायियों का, परन्तु मेरे विचार में यह घटना महत्वपूर्ण  इसलिए नहीं थी कि उन्होंने महाभारत, गीता, रामायण, बौद्ध, चीनी, जैन एवं जापानी दर्शन पर अपने विचार प्रस्तुत किये, दर्शन के क्षेत्र में नए नए प्रयोग किये एवं इन प्रयोगों के सफलतम सिद्ध होने के पहले ही विवादास्पद हो गए बल्कि इसलिए महानतम घटना थी कि उन्होंने धर्म में तर्क के महत्त्व को महत्वपूर्ण बना दिया और सारे दर्शन, सारे धर्मो के महत्वपूर्ण तथ्यों को सत्य के साथ जोड़ दिया|  प्रेरणा स्वरुप सभी संत एवं कथाकार धर्म की व्याख्या करते समय तर्क देकर समझाने लगे| कुछ नयापन आया, कुछ खुलापन आया हिन्दू दर्शन में एवं पुन: हिन्दू दर्शन व्यापक हो उठा, जिसने असीम क्षमता को जन्म दिया एवं सभी धर्मो के मूल तत्व समाहित हो गए|  तब कई पंथ वैदिक एवं हिन्दू दर्शन की ओज में छिप गए| मै एक बार ओशो के समाज में गया, यह जानने के लिए की प्रायोगिक तौर पर उनके दर्शन का क्या उपयोग हो रहा है| मैंने पाया कि प्रवचन, एक खास प्रकार का संगीत, मौन वृति से अध्यातम को उपलब्ध होने का प्रयास किया जा रहा था| यह सब कुछ तो हिन्दू दर्शन में पहले से ही उपलब्ध था| कृष्ण की बंसी जब बजती थी तो पूरा गोकुल झूम उठता था, उस संगीत से एकाकार हो उठता था और उस परम सुख का अनुभव करता था जिसके लिए योगी वर्षो तपस्या करते थे| सुख वास्तव में एकाकार होने में है,  कहते भक्त का भगवान से, प्रेमी का प्रेमिका से अथवा संगीत का श्रोता से एकाकार होना सब एक जैसी ही घटना है| कृष्ण की बंसी अलौकिक व् अनादी था, इसलिए वह ख़त्म होने की वस्तु ही नहीं है और दीर्घकाल तक मनुष्य एकाकार होकर रह सकता है, भक्त भगवान से एकाकार होता है जो एक परालौकिक सत्ता है, अत: यह भी अनंत काल तक रहेगा परन्तु प्रेमी का प्रेमिका से शरीर के तल पर एकाकार होना एक क्षणिक परमानन्द की घटना है एवं भौतिक स्वरुप होने के कारण नित्य, निरंतर नहीं है अत: अध्यात्म का मार्ग हो ही सकता| मन की प्रवृति चंचल है, एवं गीता के अनुसार इसे नियंत्रण आवश्यक है, यह दमन नहीं बल्कि बुद्धि को चेतना के मार्ग पर ले जाने का उपक्रम है|  हमें शारीरिक शक्ति को अध्यात्मिक शक्ति में बदलने के लिए मन का नियन्त्रण आवश्यक है, मन का निग्रह आवश्यक है, इसके बगैर हम कोई सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते है, एवं सिद्धि के बगैर सुख का आधार ही नहीं मिल सकेगा| 

संगीत के संदर्भ में दो शब्द आते है, नाद और अनादी| अनादी का अर्थ वैसे तो यह है कि जो शुरू ही न हुआ हो अथवा यु कहे जो उत्पन्न ही न हुआ हो| कृष्ण कि बंसी की धुन अनादी था, वह उत्पन्न ही नहीं हुआ, वह मौन था, बस होठो पर रखा और गोपिया मदमस्त हो गयी| उस धूम में बंध गयी, एकाकार हो गयी, सुध-बुध खो दिया, दीवानी हो गयी| आप कहेगे, संगीत उत्पन्न हुआ ही नहीं और सभी को सुने कैसे दिया? यही तो योग माया है| यही माया हर युग में उत्पन्न हुई, प्रकृति का सृजन किया एवं आवश्यकता पड़ने पर संहार किया| यह माया ही तो है, कि हम आंख के होकर भी अंधे है| हमें इतना भी सत्य दिखाई नहीं देता कि माँ के गर्भ से शिशु के स्वतंत्र होने के बाद माँ का शिशु से नियंत्रण समाप्त हो जाता है, मगर फिर भी हम किसी न किसी को अपने नियन्त्रण में रखना चाहते है| माँ पुत्र को, पिता पुत्र-पुत्रियों को, पत्नी पति को अपने नियन्त्रण में रखना चाहती है| यहाँ नियन्त्रण का अर्थ कुछ इच्छाए, कुछ अपेक्षाए एवं कुछ खोने-पाने की प्रक्रिया बनाए रखने से है| यह माया का ही प्रभाव है कि हमें आभास नहीं होता है कि हम सभी प्रकृति का निर्माण है और प्रकृति में नस्त हो जायेगे और कालातीत प्रकृति पुन: पूजनीय बनी रहेगी|  कृष्ण का अर्थ ही काल से है, एक अंधकार से जो खामोश है, मौन है, प्रकृति का उद्भव भी इसी से हुआ है, जब चिड़िया कि चहचाहट नहीं थी, हवाए मौन थी, भौरों का गुंजार नहीं था, मनुष्य उत्पन्न ही नहीं हुआ था| वह मौन ही उद्गम है इस प्रकृति का, उस क्रिशन से अथवा उसकी बंसी से छ: राग और छतीस रागिनिया बनी एवं इनके सम्मिश्रण से सोलह हजार उपराग एवं रागिनी बनी, तो कृष्ण की सोलह हजार पट-रानिया  थी, इसमें झूठ क्या है?



आचार्य रजनीश ने अपने पुस्तक/प्रवचन में उल्लेख किया है कि एक महात्मा ने वर्षो तपस्या की, सिद्धिया प्राप्त करने में बिताई, एवं वे नदी को पैदल ही पार कर जाते थे| इस दृष्टान्त से वह यह समझाने की कोशिश करते है की जो काम एक अठन्नी देने से नाविक कर देता, उसके लिए इतनी सिद्धिया प्राप्त करने की अथवा इतनी तपस्या की क्या आवश्यकता थी| ऐसे ही रामकृष्ण परमहंस के आश्रम में उनकी शिष्या थी, जो अपनी एकाग्रता से मज को अपनी तरफ खीच लेती थी, अब मेज तो हाथ से भी खिची जा सकती थी फिर इसके लिए इतनी मानसिक परिश्रम की क्या आवश्यकता थी? यह छलावा है| मै कहता हु, क्या यह छलावा नहीं है, भीड़ में एकांत दुदना, मौन दुदना, अगर हमें एकांत ही चाहिए तो तो बस खड़े हुए, भीड़ से अलग हो गए और मौन की स्वीकृति अथवा अनुग्रह पाने का प्रयास करे|  आपके और संगीत के बीच भेद मिटाना है, एक दुसरे में समाहित होना है तो भीड़ की क्या जरुरत है| भीड़ तो पंथ को जन्म देगा, पंथ विवाद को जन्म देगा| सुख के लिए एकाकार होना आवश्यक है, चाहे वह कबीर के बेटे के घासमय होने जैसा हो( कबीर ने अपने बेटे को घास लाने को कहा, वह घास में इस कदर खोया की उसे घर जाने का याद नहीं रहा) अथवा सुकरात के तारो को देखने जैसा हो( सुकरात एक बार शिष्यों को बताकर आश्रम से बाहर चले गए, रात बीतने पर वह जब नहीं लौटे तो शिष्यों ने दुदना शुरू किया, वे बाहर खुले मैदान में तारो के देखने में लीन थे), या एक मुसाफिर के लिए नदी के किनारों पर बैठ कर नदी की कल-कल धारा में संगीत में डूबने जैसा हो, यह सब सुख देगा| तभी आचार्य के दर्शन की महता होगी, अन्यथा पंथ तो दर्शन को उखाड़ फेकेगा, मूल तत्व से भटक जायेगा एवं बौध धर्म की तरह ही उसके अनुयायी ही उनके महान दर्शन के विनाश का कारण बन जायेगे|


वस्तुत: हम राम, कृष्ण अथवा अन्य भगवान की पूजा नहीं करते, बल्कि उनके आदर्शो की, उनके प्रकृति की पूजा करते है| हम मूर्ति अथवा शरीर की पूजा नहीं करते| प्रकृति का अर्थ भी यहाँ व्यापक है क्युकि प्रकृति मनुष्य की वही होती है जो प्रकृति से उसे सरलता पूर्वक प्रदान की है| राम, कृष्ण, बुद्ध एवं महावीर ने अपने व्यक्तित्व में जिन गुण धर्मो का समावेश किया, जो उनके व्यक्तित्व से झलकता है, वस्तुत: हम उसी की पूजा करते है| अध्यातम जगत में शरीर मांस और रक्त से बने उस ढाचे से है जिसमे चेतना जैसे महत्वपूर्ण अनुभव का समावेश होता है| चेतना सदैव सुद्ध होती है, बुद्धि शुद्ध और अशुद्ध दोनों हो सकती है| परन्तु व्यवाहरिक जगत में शरीर बहुत महत्वपूर्ण है, क्युकि यह पदार्थ की तरह दीखता जरुर है, पदार्थ है नहीं, यह जीवन है और जीवन को सिर्फ जीवन के बदले लिया या दिया जाना चाहिए|