जीवन का अनुभव

बचपन और किशोरावस्था का समय तो जैसे पंख लगाकर उड़ते है, सिवाय खेलने-कूदने और पढ़ने के, इन्सान सोचता भी क्या है? परन्तु जैसे जैसे समाज में आता है, शादी होती है, जीवन के अनुभव, रिश्तो की गुत्थी, प्यार का एहसास और मोह माया का चक्कर में पड़ता है, उसकी कल्पना की दुनिया जिसे वह स्कुल अथवा हॉस्टल की जिंदगी में देखा होता है, उससे अलग एक अनुभव से रूबरू होता है| तब वह एहसास करता है, और स्कुल अथवा हॉस्टल की दुनिया में लौट जाना चाहता है, जहा न कोई स्वार्थ था न कोई उम्मीद , बस मस्ती कि बातें और अपने अपने ठौर| 


परन्तु मोह भी जीवन का एक सत्य है और इन्सान को एक बार होता जरुर है| परन्तु अंतिम सत्य का अनुभव तब होता है जब वह जर्जर हो चूका होता है अथवा अगर अनुभव हो भी गया तो मोह वापस संसारिकता की ओर खिचता है| सभी ख़ुशी दुदते हुए मर जाते है, परन्तु अंतिम सत्य का एहसास नहीं होता| सुख कदापि शाश्वत नहीं है| 


सुख की अधिकतम सीमा ही दुःख है और दुःख की  सीमा सुख|  सभी मन के बंधन है| मानव मन बड़ा ही चंचल है, कभी चाहता है प्रेमिका की बाँहों में, तो कभी एकांत में| यह निर्विवाद सत्य है कि मन ही हमारे सुख अथवा दुःख का मूल है| मन ही इन्सान को इच्छा देता है और इच्छाओ कि पूर्ति न होने पर दुःख होता है| जहा इच्छा है वहा सुख नहीं हो सकता इसीलिए सदैव अपनी इच्छाओ का दमन करो| जीवन के अंतिम पल में सिर्फ इन्सान कि आत्मा उसका साथी होती है, जो उससे उसके कर्मो का हिसाब मागती है| इन्सान अगर अपने कर्मो से संतुष्ट है तो मौत को भी ख़ुशी से गले लगता है, मौत से डरते वो है, जो जीवन में कुछ अधुरा छोड़ा है| जिन्होंने कर्म किये सबके लिए, अपनी सेवाए दी समाज के लिए, वे अमर है| ये बात और है कि वक़्त के हिसाब से धर्म और उसके आदर्श अपने स्वरुप बदल देते है| मै स्वाभावत: अति वादी व्यक्ति रहा हूँ| जीवन के जिस पहलु से जुड़ा, मै अति कर डाली| और अति की आदत स्वय में एक दुर्गुण है| अति की आदत हमें सदैव दुखी किया| सुख शाश्वत नहीं है| सुख तभी तक सुख लगता है, जब तक हम इसके लिए संघर्ष कर रहे होते है, परन्तु ज्योही हम सुख का भोग करते है, बस सुख नीरस हो जाता है| सुख क्रियाशीलता में है, उसे पाने में नहीं| मैंने कई बार सोचा कि मै इस लौकिक जीवन में सुख का भोग करू, मगर इसमें स्थाइत्व नहीं था| इहलौकिक जगत के सुख में स्थाइत्व नहीं होता है, क्युकि यह सदैव हमारे मन से नहीं जुड़ता| मन सदैव सकून चाहता है, शांति चाहता है और इसी स्थिति में परम सुख कि अनुभूति हो सकती है|  इसीलिए सदैव मन को परालौकिक जगत से ही जोड़कर शांति पाई जा सकती है| जीवन में भटकाव के कारण पूरा जन्म अतृप्त प्राणी सा बीत जाता है और विरक्ति का एहसास हमें मनो-मस्तिष्क और तन के विकृत अवस्था में होता है| सत्य को जन कर भी मानव इससे दूर भागता है| स्थित प्रग्य हो जाना बहुत बड़ी बात है जीवन के लिए, सत्य जैसे साफ-साफ नजर आता है| सत्य बिलकुल हमारे सामने होते है, हम उसे अपने अहंकार, लिप्सा, स्वार्थ और अज्ञान से ढक देते है| 


मै भी जब कभी यह सब सोचता था तो बड़ा बकवास लगता था| मुझे सदैव यह सब इतिहास का एक पन्ना लगता था| मगर राम अथवा रहीम तो मै नहीं कहता, परन्तु धर्म और धर्म कि आस्था जीवन का मूल है| मानव स्वय ही एक धर्म है| उसका मन जब स्थिर है, मुक्त है तमाम मोह के बंधन से, तब वह स्वय ही सत्य है| वह जो कुछ अनुभव करता है वही सत्य है, धर्म है| धर्म कोई लिखित सविधान नहीं है, एक अनुभव है जो प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उपस्थिति का एहसास कराता है और प्रत्येक मानव के अन्तरम में निहित है| आवश्यकता है सिर्फ अनुभव करने की, अपने अन्तरम के ज्ञान को| यही मानव धर्म है| जीवन कर्ममुलक है, सदैव ढूढे जीवन के सत्य को| यही प्रत्येक मानव का कर्तव्य है| 


हम स्वयं भी सोचते थे की क्या होगा सत्य को खोजकर या फिर सत्य का अनुभव करके| जीवन के सुख लो, मै उस सुख की बात कर रहा हु, जिस सुख के लिए आम आदमी परेशांन है| कोई नही चाहता है आंतरिक सुख को, क्युकि इतना धैर्य कहा है? सभी वाह्य सुख की तलाश में दौड़ रहे है| मगर कोई नहीं चाहता उस अन्तरम के आनद का अनुभव करना | अगर अन्तरम के आनद का अनुभव करेगा तो संभवत: वह संपूर्ण वाह्य आनंद को तुच्छ समझेगा| मै ये नहीं कहता कि अन्तरम का आनंद वाह्य सुख में नहीं होता, कही न कही, किसी विषय वस्तु में वाह्य सुख का आनंद होता है परन्तु इसमें स्थायित्व नहीं ह्योता है| यही बुराई है इसमें| संसार का प्रत्येक वस्तु क्षणिक है इसलिए यह आवश्यक नहीं कि कोई सुख सदैव बना रहे| इसीलिए आंतरिक मन की शांति का सुख ज्यादा महत्वपूर्ण है| महान आचार्य रजनीश ने भी बाह्य सुख से आन्नद की अनुभूति करनी चाही या यु कहे कि अपने दर्शन में उन्होंने वाह्य सुख के द्वारा मन कि शांति दुदने की बात कही है| अगर उनका दर्शन, उनके विचार सिद्धांत: सही है, क्युकी चाहे वह वाह्य जगत का सुख हो या आंतरिक जगत का, इसकी कोई माप तौल नहीं है कि कौन अधिक अथवा कौन कम होता है, परन्तु प्रायोगिक तौर पर रजनीश के सिद्धांत काफी दुष्कर है|  उन्होंने सम्भोग से समाधी का मार्ग बताया| परन्तु उस परम सम्भोग जिसका सुख का अनुभव एक बार हो जाने के बाद मन शांत हो जाता है,संभव नहीं है| सम्भोग कि उस अवस्था तक पहुचने के लिए मानव को बहुत प्रयत्न करना होगा, बहुत शक्ति एकत्रित करनी होगी और समाज को ही पूर्णतया बदलना होगा| फिर यह प्रत्येक उम्र के लोगो के लिए संभव नहीं है और इसमें दुसरे की सहयोग कि आवश्यकता होगी| संभवत: इन्ही बुराइयों के कारण उनका यह प्रयोग सफल न हो सका और इससे कुप्रवृतिया ही बढ़ी| क्युकि प्रत्येक मानव आदर्श नहीं हो सकता अथवा आदर्श जीवन कि खोज नहीं करता है| अगर उसे एक बार सुख कि अनुभूति होगी तो वह बार बार  उसके पीछे दौड़ेगा, चुकी यह सुख भौतिक साधन स्वरुप उपलब्ध होगा इसीलिए मानव मन शांत न होगा| इसीलिए मानव मन कि शांति किसी अलौकिक जगत से जुड़ने में ही संभव है| 


मै जब बहुत छोटा था, तो अक्सर पूजा, मंदिरों में जाना और भजन कीर्तन किया करता था साथ ही अध्ययनशील होने के कारण अन्य धर्मो को जानने, पढ़ने का मौका मिला| सभी धर्म मनुष्य कि शांति का मार्ग बताते है, मगर एक बात जो हमें बहुत प्रभावित करती है, वह यह है कि सभी धर्मो अथवा धर्म कि संहिताओ पर उनके वातावरण और उनके समाज का प्रभाव साफ नजर आता है| सभी धर्म मनुष्य के जीवन और उसमे शांति कि व्याख्या करते है और मुझे लगता है कि धर्म समय एव वातावरण के परिप्रेक्ष्य में परिवर्तनशील है| समाज में धर्म कि दुर्दशा देखकर सदैव लगता है कि धर्म की पुन: व्याख्या आवश्यक है| यही कारण है, कि मैंने अपने आप को जीवन के हर पहलु से जोड़ा मगर उससे कभी बंधा नहीं| मै सदैव एक प्रेक्षक कि भाति जीवन को अनुभव करने कि कोशिश किया| मै सदैव ऐसे सत्य, ऐसे धर्म कि तलाश में लगा रहा जहा प्रत्येक मानव मिल सके| स्वय को अनुभव करना ही सबसे बड़ा धर्म है| इसीलिए मै अपने अनुभव को सदैव विकसित किया और अनुभव करने कि कोशिश की| यही कारण है कि जीवन के हर पहलु से जुड़ना, बारीकी से अनुभव करना एवं पुन: उस बंधन से खुद को मुक्त कर लेना एवं परम सत्य को संचय कर लेना मेरे जीवन का उद्देश्य है| 


एक चीज जो परम दुखदायी है वह है आसक्ति| आसक्ति सदैव दुःख का कारण है, आसक्ति चाहे वस्तु विशेष से हो अथवा मानव विशेष से| कही भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए| धर्म का अर्थ है, अंतिम सत्य का अनुभव और अंतिम सत्य है, विरक्ति| विरक्ति , मानव विशेष से, वस्तु विशेष से, अर्थ विशेष से अथवा अन्य सभी विधाओ और कर्मो से| यही है अंतिम सत्य जीवन का, मनुष्य को त्याग करना ही पड़ता है, विरक्त होना ही पड़ता है, चाहे वह स्वत: हो अथवा प्रकृति से मजबूर होकर| मनुष्य जीवन में कुछ पता नहीं है, सदैव खोता है, जब वह बच्चा होता है तो साडी दुनिया उसकी अपनी होती है, वह तारा, चंदा सबको अपना समझता है| बड़ा होता है, पृथ्वी माँ हो जाती है, अन्नपूर्णा हो जाती है और वह सिमट जाता है पृथ्वी तक| और बड़ा होता है, अपने पराये का बोध होता है, अहम भाव आता है, उसे पता चलता है वह भारत वासी है, वह भारत भूमि तक सिमट जाता, फिर अपने राज्य से और फिर क्षेत्र विशेष से| इस प्रक्रिया में मानव खोता है, पाता कुछ भी नहीं| यही है बंधन, हमें खोना नहीं है, पाना है, पाने के लिए प्रयत्न शील रहना है, परन्तु यह कर्म है, इससे भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए क्युकी सत्य इसके साथ भी यही है कि इससे भी विरक्त होना है, त्याग करना है| सब-कुछ त्याग करना है, यहाँ तक कि इस शारीर को भी, अंतिम सत्य सिर्फ आत्मा है, जो नश्वर है, और इसी का अनुभव करना, स्वयं को जानना, सबसे बड़ा धर्म है| स्वयं में ही अंतिम सत्य निहित है, हम सिर्फ स्वयं नहीं है,मूल है हम सब, इस प्रकृति का हिस्सा है| समय के साथ विचार बद्लेगे, धर्म बदलेगा मगर मूल तत्व वही होगा जो स्वयं में उपस्थित है| आवश्यकता है अनुभव करने की, यही जीवन को अर्थ देगा| खोने की प्रक्रिया जितनी लम्बी होगी, मनुष्य की उम्र उतनी ही लम्बी होगी| पहले मनुष्य पूर्ण जगत को खोता है, क्षेत्र विशेष से जुड़ता है, पुन: और स्वार्थी होता है, परिवार विशेष से जुड़ता है और फिर स्वयं से जुड़ता है| और अन्नतोग्त्वा स्वयं को भी खोता है तब सिर्फ आत्मा बचती है, एक शून्य, जो प्रत्येक में उपस्थित है, जो सनातन है, सत्य है, मौलिक है और यही है मानव धर्म का मूल| 


समपुर्ण जगत के सभी तत्वों में यह मौजूद है, एस्सेंस, मूल तत्व यही है, यह मष्तिष्क से प्रेरित नहीं है, यह चेतना से प्रेरित है, और यही प्रेम का मूल बिंदु है| प्रेम प्रत्येक में उपस्थित है, प्रत्येक के लिए, और धर्म इसी को विकसित करने का मार्ग है| प्रेम जिसकी विवेचना सभी मनीषियों ने की है, सचमुच बहुत ही व्यापक शब्द है और जीवन सुख का आधार है| मनुष्य में प्रेम की प्रवृति ही होती है| यह कहना गलत होगा की एक व्यक्ति किसी को प्रेम करे और किसी से घृणा| एसा हो नहीं सकता| जो कुछ भी है वह मानव की अपनी प्रवृति है, उसकी प्रकृति है| मानव मन प्रेम करना चाहता है, मस्तिष्क विवेचना करता है| मस्तिष्क दुश्मन है प्रेम का| प्रेम मनुष्य की प्रवृति है, प्रकृति है, जो एक से प्रेम करेगा वह सभी से करेगा| एक से प्रेम और दुसरे से घृणा तो निश्चय ही मन के अन्तरम से नहीं, मस्तिष्क के स्वार्थ से आधारित है| अन्यथा प्रेम करना है मनुष्य को, अपने आप से, अपने वातावरण से, अपनी हर एक वस्तु से और अन्य सभी वस्तु एवं मानव से| यही प्रेम की मूल बिंदु है| प्रेममय ह्रदय प्रेम करता है पूरी प्रकृति से| जो प्रेम करते है, वे स्वभावत: सरल होते है|



दार्शनिक होना अलग बात है एवं सामाजिक व्यक्ति होना अलग बात है| दार्शनिक से लोग कोई अपेक्षा नहीं रखते सिवाय शब्दों के, वाणी के, परन्तु सामाजिक जीवन में इसकी अपेक्षा की जाती है| मनुष्य किसी का भाई है, किसी का बेटा, किसी का पति तो किसी की बहन| इससे भागना और दर्शन देना तो सामाजिक बन्धनों से भागना होगा, कमजोरी होगी| सभी जब यही सोचेगे तो अजीब वातावरण पैदा हो जायेगा| यह बात अलग है की इस दायरे के अंदर रहकर कैसे इसका पूर्ण निर्माण करे| इस दायरे के अन्दर कैसे व्यक्ति सामाजिक सामजस्य करे और जीवन की जीवन्तता, मौन की स्वीकृति एवं प्रेम का अनुग्रह पाए| जीवन में कई बार चाहा मै स्वयं से जुड़ने के लिए, मगर सदैव समाज का प्रभाव मेरे विचारो पर पड़ा| किसी ने अपनापन दिया तो अपनत्व, किसी ने नफरत किया तो नफरत, परन्तु स्थितप्रग्य न हो सका| साधुवाद न आ सका| मन विचलित होता था, कल्पनाए नया कुछ करना चाहती थी, समाज को जिस रूप में मै परिभाषित करता रहा, सोचता रहा वैसा समाज कदापि नहीं मिला| मै लोगो को बदलना चाहता था, उनकी मानसिकता बदलना चाहता था, मगर सब बेकार था| लोगो को मेरे सिद्धांत समझ में नहीं आ रहे थे| संसार अपने अपने तरीके से जीने को उन्मत था| मै अपने परिवार को नहीं बदल पा रहा था, फिर समाज को बदलने की कल्पना बेकार थी| मै स्वयं में उलझ गया| मै लोगो को बदलने की प्रक्रिया में खुद ही बदल गया| संभवत: मै समाज से बध गया जो निरा मेरी बेवकूफी थी| कमजोर हो गया मै संघर्ष करते करते, अब अपने को बदलना मुश्किल लगने लगा| पुन: मै स्वयं में सिमट गया|


भावनाओ के दर्पण में समाज और जीवन को परिभाषित करना बड़ा ही कठिन है| क्युकि भावनाओ का सम्बन्ध सदैव भाव से होता है, ह्रदय से होता है, आत्मा से है जिसकी मूक आवाज सदैव किसी को आह्लादित नहीं करती| आपकी भावनाए ह्रदय में जागती है, भावनात्मक भाव ढूढती है, परन्तु ऐसा असंभव सा होता है| बेशक, भावो का मिलन और उसका अनुभव बड़ा ही मर्मस्पर्शी एवं आनंददायक होता है, जो प्रत्येक को नहीं मिल पाता है| या यु कहे की जहा ढूढता है वहा नहीं मिलता है| यह कल्पनालोक की यात्रा है, जैसे भगवान से प्रेम करना या भावनात्मक सम्बन्ध रखना, यह पूर्णतया कल्पनालोक की यात्रा है| भौतिक संसार में यह असंभव है| जीवन का रहस्य बड़ा ही गहरा है, परन्तु सामान्य तौर पर बड़ा ही आसान| अगर मुक्त है तमाम मोह के बन्धनों से, कोई अपेक्षा, इच्छा नहीं है समाज से, संतुष्टि है तो जीवन बड़ा ही सामान्य है, परन्तु जब सामाजिक तौर पर, अलग-अलग रिश्तो में, व्यवहार में और अनुभव में जब ढूढ़ते है तो जीवन का रहस्य बड़ा गहरा हो जाता है| जहा तक मै समझता हु, शरीर पदार्थ की तरह दिखता जरुर है, मगर पदार्थ नहीं है| यह जीवन है, और जीवन को सिर्फ जीवन के बदले लिया या दिया जा सकता है| इससे कम पर कोई भी समझौता जीवन के साथ विश्वासघात है| जहा तक बौद्धिकता का सवाल है, यह मनुष्यता का पूरा परिमाप नहीं हो सकती| यह धोखा खा सकती, छल कर सकती है| मुझे वह चाहिए था जिसमे छल की कोई जगह न हो| यह भावना है और भावना ही अस्तित्व का मर्म है| मुझमे भावनाओ की तड़प है, रिश्तो का इतिहास नहीं|


जहा तक मै समझता हूँ, प्रेम बड़ा ही आध्यात्मिक तल है, आध्यात्मिक चीज है| मनुष्य का स्वभाव ही प्रेममय है, वह हर वस्तु से प्रेम करता है, और जो ऐसा नहीं करते, वो अथवा उनका ह्रदय ही प्रेममय नहीं होता है| वे विध्वंस करने वाले लोग होते है| प्रेम के विषय में आध्यात्मिक सत्य है, कि मनुष्य का स्वभाव ही प्रेममय है, तो क्या कारण है कि मनुष्य आज के दौर में विध्वंसकारी है? बहुत बड़ा कारण है, मनोवैज्ञानिक कारण| मनुष्य जब बच्चा होता है, उसकी बुद्धि विकसित नहीं होती है, तब वह आध्यात्म कि स्थिति में होता है| प्रेममय होता है| परन्तु ज्यू-ज्यू बुद्धि विकसित होती है, किसी वस्तु को पाकर प्रसन्न हो जाना और किसी वस्तु को न पाकर असंतुष्ट हो जाना बुद्धि सिखाती है| बुद्धि दुश्मन बनती है प्रेम का| यह वस्तु अच्छी है, यह ख़राब है, लोगो ने परिभाषित कर रखा है| क्या जरुरत है परिभाषित करने की? वह स्वयं अनुभव करेगा| मानव जब आदिम कल में उत्पन्न हुआ, धर्म विकसित नहीं हुआ था तो क्या उचित है, क्या अनुचित है, कोई परिभाषा नहीं थी, तो सबकुछ अच्छा था मनुष्य के लिए| वह नदी से प्रेम करता, पेड़ो की पूजा करता और प्रकृति की  हर वस्तु से प्रेम करता था| अब एक और तल है, शारीरिक आवश्यकता का तल| इन्सान को भूख लगती थी तो वह शिकार करता था, परन्तु यह स्वभाव की मूल वृति से प्रेरित नहीं था| यह इन्सान की जरुरत थी| पुन: ज्ञान हुआ की पशुओ को मरने के अलावा भी कई साधन है, तो उसने अन्न उपजाया और पेट भरा| तो यह है प्रेम की वृति|  मनुष्य कई बार अपनी शारीरिक आवश्यकताओ के कारण प्रेम को त्यागता है, पकड़ता है| 


आज के युग में मनुष्य के विध्वंसकारी होने का सबसे बड़ा कारण है, क्षोभ| प्रेम में उत्पन्न क्षोभ| प्रेम है बड़ा महान शब्द, परन्तु इसमें उत्पन्न क्षोभ बड़ा विध्वंसकारी होता है| बच्चा है, माँ को प्रेम करता है, माँ ने डाट दिया, क्षोभ उत्पन्न हुआ, ह्रदय कार्य नहीं करता, मन का अन्तरम ठहर जाता है, बुद्धि अपनी प्रतिक्रिया प्रारम्भ कर देती है| अब प्रेम के कई तल है| पहला आध्यात्मिक तल, तो बिना कुछ पाने की आशा रखे प्रेम करते रहना, परन्तु प्रत्येक मनुष्य आध्यात्मिक नहीं, और न ही इतना शक्तिवान अथवा धैर्यवान| इन्सान तो इन्सान है, तो दूसरा तल है, ह्रदय का तल, मन का तल, उसे ढूढता है| अगर यह तल मिल भी जाय तो भी इन्सान की शारीरिक आवश्यकता पूरी नहीं होती है| अब तीसरा तल है जरुरत का तल, आवश्यकता का तल और यही उपलब्ध है आम इंसानों में|  प्रेम को उत्पन्न करने के लिए इन तीनो तल का सामंजस्य आवश्यक है| मगर प्रेम को सिर्फ अध्यात्म के तल पर परिभाषित करे, तो यह किताबो में कैद रहेगी, मनुष्य के काम नहीं आ सकेगी| अध्यात्म का तल एक दर्शन है, एक विचार, एक आदर्श बिंदु, परन्तु आम इन्सान इतना धैर्यवान नहीं, उसे तो प्रेम में सब कुछ चाहिए| उसकी शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक सभी जरूरते पूरी होती है, तो वह प्रेममय ह्रदय है, कभी विध्वंस की सोच भी नहीं सकता| परन्तु इसमें कही भी क्षोभ उत्पन्न हुआ, तो वह विध्वंसक होगा| उसकी बुद्धि प्रतिक्रिया करना सिखाएगी, वह गलत करेगा| अतेव प्रेम प्रत्येक व्यक्ति की पहली आवश्यकता भी है और अधिकार भी| प्रेम प्रत्येक मनुष्य की पहली जरुरत है|