Thursday, September 1, 2011

तथ्य

 निर्बल, निस्तेज, आंसू की बूंद सा
 दुलकता हुआ, क्या यही तथ्य है?
जीवन की मार्मिक छवि,
क्या अब किताबो में कैद रहेगी?
आकाश सी फैली हुई मेरी बाहें,
समुंदर सी गहरी मेरी भावनाए,
समेटना चाहती है अपने आगोश में,
उपवन, चितवन, करुणा, आकर्षण,
मौलिकता जो जीवन में है|
गंभीर, शांत, शीतल मस्तिष्क,
गहरी काली अँधेरी रातों को 
अपना सर्वस्व कब तक मानेगी?
निहारिका की तेज पुंज,
अरुणोदय का प्रकाश,
हरीतिमा की आशा में,
निर्झर जीवन कितने बसंत देखेगा|
बर्फ के मानिंद चमकते चेहरे,
छुते ही पानी-पानी हो जाते है,
पत्थर की मूर्तियों से कब तक,
दया के भीख मांगे जायेगे?
प्रबल अभिव्यक्तियों के आभाव में,
निरर्थक प्रतीत होता जीवन,
और सर्वस्व को त्याग कर,
प्रेम प्रणय का अनुमोदन,
जीवन को पूर्णता नहीं दे पाती है| 
निष्ठुर जगत मन का नहीं,
अभिव्यक्तियों की भाषा समझता है,
मगर अव्यक्त को अभिव्यक्त करना,
कितना कठिन, कितना दुरह है|
                                              मिथिलेश राय

Monday, July 18, 2011

सुनापन

मेरी जिन्दगी इतनी सुनी क्यू है,
किसी विधवा की मागं की तरह।
कभी रगं भी भरना चाहू तो,
अपने आप से लडना पडता है,
कैसे भुला दु, कभी रगं भी भरे थे,
आज उजड. गया, सूना पड. गया।
मेरे अल्फाजं इतने कड्वे क्यू,
नीम के पते की तरह,
हमको पता है, यही एक इलाज है,
फिर भी मन स्वीकार नही करता,
मन सरलता ढुढता है, मगर,
कहा से ले आऊ वो मीठापन,
मेरा अस्तितव इतना छिछला क्यु,
नदी के किनारों की तरह,
हर लहर मुझसे कुछ छिन लेती है,
और मै खोकर भी वही,
खडा रहता हु बेबस, बेसहारा
मेरे एहसासों मे इतनी घुटन क्यु,
काई जमी हुई जमीन की तरह,
हर नजर फिसल जाती है,
कोई नही ठहरता, बस थोडी सी दर्द की
परत उघाड देता है,
ठहरी हुई है जिन्दगी, बह रहे है आसुं,
क्या मेरा कसुर सिर्फ़ इतना नही,
की मैने किसी से बेपनाह मुहब्बत की थी।
                                          
                                                  मिथिलेश राय

Tuesday, June 21, 2011

कवि की कल्पना

सौन्दर्य की प्रतिमान, 
वो विश्व कमल की म्रिदुल मधुकरी।
वो अन्नत रह्स्यो की मुर्ति,
वो स्वर्ग लोक की चंचल परी।।
एक रात चुपके से चलकर,
मेरे पास आई थी।
बहुत नजदीक थी मेरे,
मगर एक गहरी खाई थी॥
उस पार पहुचना मेरे,
वश की बात नही थी।
पर कवि की उन्मत भावों के,
रुकने की रात नही थी।।
लेखनी की नौका से,
कवि जब उस पार गया।
एह्सास हुआ भोलेपन का,
खुद से ही मै हार गया।।
वह तो बस कल्पना थी,
कवि ह्रदय की छवि थी।
जाते जाते कहती गयी,
शायद वो भी कवि थी।।
भाव जगत मे ढुढो मुझको,
मै हरदम भावों मे मिलती।
तेरे ह्रिदय की कल्पना की,
धुप और छावों मे मिलती।।
निज परीवेश मे तुमको,
ऐसा एहसास नही मिलेगा।
जब भी मेरे पास आओगे,
कोई पास नही मिलेगा।।
विश्व के तम का सुन्दरतम रहस्य,
मै कल्पना लोक की परी हु।
मै ही कविता, मै ही सरिता,
कवि ह्र्दय मे भाव भरी हुं॥
मुझे देख-देख कर कवियों ने,
कितने ही गीत सजाये है।
पर जिसने कोशिश की छुने की,
मुझे ढुढ नही पाये है॥
यह असीम जगत माया है,
तेरे अन्दर है जग सारा।
यथार्थ की भुमी पर,
कुछ भी नही है तुम्हारा॥
मत पकडो किसी को भी,
वो तितली बन उड. जायेगा।
बस फुल बन खिल जाओ,
तेरे चारो ओर मंडरायेगा॥
कवि तेरा क्या, तुम तो,
भाव भंवर मे लहराते हो।
सौन्दर्य की प्रतिमा के,
न जाने कितने रुप सजाते हो॥
तेरी लेखनी की छाया मे,
कितने ही संगीत बने।
कितने ही दिल टुट गये,
कितने ही मनमीत बने॥
फुलो ने स्रिगार किया,
भौरों को उपहार मिला।
मन सवेदनशील हूआ,
बागों को बहार मिला॥
लौट आया मै वापस अपनी,
गरिमा कि छाया मे।
पर न जाने क्यु बसती है,
कल्पना मेरी काया मे॥
                मिथिलेश राय

Thursday, June 2, 2011

धत तोरी के! ये क्या हो गया?

धत तोरी के! ये क्या हो गया?
बात दिल में थी मेरे, होठों से बयाँ हो गया|
धत तोरी के! ये क्या हो गया?
दर्दे दिल मै सह भी लेता, 
अगर ये बात न होती,
उनकी बिंदिया ना चमकती, 
तो ये हालात न होती,
उनके पायल न खनकते, 
तो ये जज्बात न होती,
वो यूँ महफ़िल से न जाते,
उजाले यूँ ही रहते, रात न होती|
मैंने हौले से उनको रुकने को भी कहा था,
उनके चेहरे पे शरमो-हया हो गया,
बात दिल में थी मेरे, होठों से बया हो गया|
धत तोरी के! ये क्या हो गया?
अब दामन बचने से क्या फायदा,
औरो के घर जाने से क्या फायदा,
तुम कुछ कहो न कहो, नजरे कह देगी,
आईने से लजाने से क्या फायदा|
उस किनारे पे जाने की जिद्द में,
दरिया में डूब जाने से क्या फायदा |
मैं कुछ ना कहुगा, चुप ही रहूगा,
सोचा था मगर, न जाने कैसे ये वाकया हो गया|
बात दिल में थी मेरे, होठों से बया हो गया|
धत तोरी के! ये क्या हो गया?
                                                 मिथिलेश राय 

Thursday, May 12, 2011

तथ्य


 निर्बल, निस्तेज, आंसू की बूंद सा
 दुलकता हुआ, क्या यही तथ्य है?
जीवन की मार्मिक छवि,
क्या अब किताबो में कैद रहेगी?
आकाश सी फैली हुई मेरी बाहें,
समुंदर सी गहरी मेरी भावनाए,
समेटना चाहती है अपने आगोश में,
उपवन, चितवन, करुणा, आकर्षण,
मौलिकता जो जीवन में है|
गंभीर, शांत, शीतल मस्तिष्क,
गहरी काली अँधेरी रातों को 
अपना सर्वस्व कब तक मानेगी?
निहारिका की तेज पुंज,
अरुणोदय का प्रकाश,
हरीतिमा की आशा में,
निर्झर जीवन कितने बसंत देखेगा|
बर्फ के मानिंद चमकते चेहरे,
छुते ही पानी-पानी हो जाते है,
पत्थर की मूर्तियों से कब तक,
दया के भीख मांगे जायेगे?
प्रबल अभिव्यक्तियों के आभाव में,
निरर्थक प्रतीत होता जीवन,
और सर्वस्व को त्याग कर,
प्रेम प्रणय का अनुमोदन,
जीवन को पूर्णता नहीं दे पाती है| 
निष्ठुर जगत मन का नहीं,
अभिव्यक्तियों की भाषा समझता है,
मगर अव्यक्त को अभिव्यक्त करना,
कितना कठिन, कितना दुरह है|
                                              मिथिलेश राय

Tuesday, May 3, 2011

एक छोटी कविता


ये खुशियों का पल है, ये मस्ती का मौसम,
कि आजा अधुरा है, अपना मिलन|
वो गीतों की लड़ियाँ, वो मासूम चेहरा,
वो पायल की झनझन, वो माथे पे सेहरा,
कभी हम भी मिले थे सपने में साजन,
कि आजा अधुरा है, अपना मिलन|
जब डोली में बैठी दुल्हन बनी थी,
वो बालों में गजरा, माथें बिंदिया सजी थी,
वो कयामत थी या तेरी तिरछी नजर,
कि आजा अधुरा है, अपना मिलन|
वो मंजिल जिसके हमने सपने बुने थे,
वो धड़कन जिसे हमने हर पल सुने थे,
मुझे मिल गया है, महका है आंगन,
कि आजा अधुरा है, अपना मिलन|
                                      मिथिलेश राय 

प्रेम पथिक


तेरे चेहरे पर उभरते रहे, 
अहंकार और घृणा से भरे भाव,
मै आइना नहीं हु वरना ,
दिखा देता तेरा असली रूप|
तू मेरे व्यथित रूप को,
कभी देख नहीं सकते हो, 
क्युकि तेरे अन्तरम में,
ठहरा हुआ है एक अक्श,
किसी के हँसते चेहरे का,
वक़्त कभी बेपर्दा कर देगा,
उस अक्श की असलियत को,
मगर तब तक तुम खो चुके होगे,
उस वृक्ष की छाया को जो,
तुम्हे अनजाने में प्रेम पथिक,
समझकर अपनी बाँहों का,
सहारा देना चाहता था|
भूल का जब तुम्हे, एहसास होगा,
तुम खुद जाकर देखना,
वो वृक्ष भी वही होगा शाश्वत,
उसकी छाया भी होगी मगर,
कोई और प्रेम पथिक 
उसकी बाँहों में समाया होगा|
                                                मिथिलेश राय

Tuesday, April 26, 2011

एक गीत


ओह रे, रुपहले पन्छी, पास हमारे स्वर नही है,
उड. सकु आकाश मे, ऐसा तो कोई वर नही है।
लेखनी कि नोक पर, वर दे कि उतरे गीत तेरे,
स्वपन सरिता मे बहुं, संग,संग ऐ मीत मेरे॥
विरह हो मेरे दुर, ऐसी प्रेम कि तस्वीर खिचु,
और पत्थर ह्रिदय पिघले कि उससे नीर सीचु॥
तेरे हर पल-पल की वेदना मै ले सका तो,
एक पल के लिये भी, संन्तावना मै दे सक तो।
तो सफ़ल यह रात, यह तारो तरंगो की रवानी,
वायु की हलचल, मेरे मन की कहानी,
तो सफ़ल यह गीत मेरा, और
सफ़ल असित्त्व मेरा।
जा रहा हुं, स्वर भरो तुम,
मै फिर लिखुगा गीत तेरा॥
                                           मिथिलेश राय

Sunday, April 24, 2011

अंतर्द्वद


किसी के पहले प्यार की पहली 
पंक्ति बनना चाहता हु,
मगर कहा ये सभंव है,
मुझ पर तो किसी और का अधिकार है।
जिसके प्यार की न तो मै,
पहली पंक्ति हु, ना ही प्रतिकार,
फिर भी बंधे हुए है,
समाज के बन्धनो को ढोते।
समाजिक बंधनो से बंधी,
गुलामी की जंजीरे,
कंहा समझता है, 
मानव मन का अंतर्द्वद।
कानुन की पहली पंक्ति,
स्वत्रंता की बात करती है,
पर कहा मिलती है किसी को स्वत्रंता,
सभी तो इसके बनते ही गुलाम हो गये।
मानव मन की प्रवंचना, उसकी विवेचना,
किताबो मे नही लिखी जा सकती है,
वरना हर इन्सान ही कानुन होता।
राजनैतिक उद्यैश्यो से उठाये गये,
कुछ सवैंधानिक शब्द, 
कुछ स्वंत्रता के ढकोसले,
और उनको पुरित करता, 
उनकी तुष्टीकरण नीति,
हर इन्सान पर कुछ न कुछ थोपता है,
जो आजदी का नही, गुलामी का द्योतक है।
पैदा होते ही, अनजाने ही बंध जाते है,
तुम्हारे कानुन की बेढीयो से,
आखिर क्यु रोकते हो मेरे पैर,
मै किसी जाति का नही, किसी धर्म का नही,
किसी देश का नही,
मै तो एक इन्सान हु,
अपने अन्त्रमन की बात रखना चाहता हु।
कहा देते हो, हमे रोटी की स्वत्रंता,
वहा तुम्हारे शैतानी हाथ,
अपने शक्ती का पोषण करते है,
कहा देते हो, हमे उन्मुक्त प्यार की स्वत्रंता,
क्युकि वहा तुम्हारा स्वार्थ टकराता है,
क्यु नही बांधते हो, पशुओ को, पंछीओ को,
अपनी कानुनी दाव-पेच मे,
और पैसे से खरीद लेते हो उनका कानुन?
क्यु इन्सान ही दुनिया की सस्ती चीज है,
जिस पर बोझ है तुम्हारे, सैकडो साल पहले,

बनाये गये परम्पराओ का,
मान्यताओ का, और उनकी अनुशंसाओ का,
निर्वाह करने के लिये।

Saturday, April 23, 2011

प्रक्रिति

 मै अर्द्धसत्य के लिये नही,
पुर्णसत्य के लिये प्रयासरत हू।
मै सहज भाव से तुम्हे,
स्वीकार करना चाह्ता हु,
सम्पुर्ण जीवन के लिये।
यह मत सोचो कि,
हमारी सीमाए क्या है, 
सीमा स्वंय तुम हो,
तुम्हे पार करनी होगी सीमा रेखा,
मै तुम्हे आत्मसात करने को,
सहज तैयार हुं, क्युकि,
मै प्रक्रिति हु, सहजता मेरी नियती है,
दान मेरा धर्म, आत्मसात करना 
मेरा कर्म है।
यह चिन्तन शाश्वत है,
इतिहास पर गौर करो,
हर युग मे ऐसा होता है,
और होता भी रहेगा।
शक्ती का पराक्रम, काल की मर्यादा,
धन का वैभव, सौन्दर्य का बोध,
समयबद्ध है, परन्तु इतिहास लिखे 
जाते है, इन विषयो पर,
शालीनता जो तुम्हारे अन्दर है,
उसे सौन्दर्य से जोडो,
शक्ती जो निहीत है तुम्हारे अन्दर,
उसे प्रेम से जोडो,
जीवन सरस हो जायेगा।
अर्थ के आभाव मे कही भटक न जाना,
मै वही कह रहा हु, जो तुम समझ रहे हो, 
सदीयो से समझते आये हो।
                                    मिथिलेश राय

Friday, April 22, 2011

कवि की कल्पना


सौन्दर्य की प्रतिमान, 
वो विश्व कमल की म्रिदुल मधुकरी।
वो अन्नत रह्स्यो की मुर्ति,
वो स्वर्ग लोक की चंचल परी।।
एक रात चुपके से चलकर,
मेरे पास आई थी।
बहुत नजदीक थी मेरे,
मगर एक गहरी खाई थी॥
उस पार पहुचना मेरे,
वश की बात नही थी।
पर कवि की उन्मत भावों के,
रुकने की रात नही थी।।
लेखनी की नौका से,
कवि जब उस पार गया।
एह्सास हुआ भोलेपन का,
खुद से ही मै हार गया।।
वह तो बस कल्पना थी,
कवि ह्रदय की छवि थी।
जाते जाते कहती गयी,
शायद वो भी कवि थी।।
भाव जगत मे ढुढो मुझको,
मै हरदम भावों मे मिलती।
तेरे ह्रिदय की कल्पना की,
धुप और छावों मे मिलती।।
निज परीवेश मे तुमको,
ऐसा एहसास नही मिलेगा।
जब भी मेरे पास आओगे,
कोई पास नही मिलेगा।।
विश्व के तम का सुन्दरतम रहस्य,
मै कल्पना लोक की परी हु।
मै ही कविता, मै ही सरिता,
कवि ह्र्दय मे भाव भरी हुं॥
मुझे देख-देख कर कवियों ने,
कितने ही गीत सजाये है।
पर जिसने कोशिश की छुने की,
मुझे ढुढ नही पाये है॥
यह असीम जगत माया है,
तेरे अन्दर है जग सारा।
यथार्थ की भुमी पर,
कुछ भी नही है तुम्हारा॥
मत पकडो किसी को भी,
वो तितली बन उड. जायेगा।
बस फुल बन खिल जाओ,
तेरे चारो ओर मंडरायेगा॥
कवि तेरा क्या, तुम तो,
भाव भंवर मे लहराते हो।
सौन्दर्य की प्रतिमा के,
न जाने कितने रुप सजाते हो॥
तेरी लेखनी की छाया मे,
कितने ही संगीत बने।
कितने ही दिल टुट गये,
कितने ही मनमीत बने॥
फुलो ने स्रिगार किया,
भौरों को उपहार मिला।
मन सवेदनशील हूआ,
बागों को बहार मिला॥
लौट आया मै वापस अपनी,
गरिमा कि छाया मे।
पर न जाने क्यु बसती है,
कल्पना मेरी काया मे॥
                मिथिलेश राय

Thursday, April 21, 2011

एक गीत

 कभी ख्वाव मे, या ख्याल मे,
युं ही आप हमसे मिला करे।
ये चमन है आपका,
यु फुल बन के खिला करे।।


हम आप कि हर शैं को,
नगमों की तरह गाते है।
जो साथ गुजारे है लम्हें,
यादो मे मेरे आते है।।


कभी जिन्दगी के सवाल पे,
कोई तो मुझसे गिला करे।
कभी ख्वाव मे, या ख्याल मे,
युं ही आप हमसे मिला करे।।


गुलशन की शाख-शाख पर,
लिख दी हमने ये दास्तान।
तु ही मेरी मन्जिल है,
तु ही है मेरा रास्ता॥


अब और ना रोको मुझको,
चलो प्यार का सिलसिला करे।
कभी ख्वाव मे, या ख्याल मे,
युं ही आप हमसे मिला करे।।


वो सुहनी शाम सा चेहरा,
वो रात सा तेरा आन्चल।
जैसे चान्दनी का चान्द हो,
और घिर आये काले बादल॥


इन प्यारी -प्यारी यादों का,
मंजर कब तक गिना करे।
कभी ख्वाव मे, या ख्याल मे,
युं ही आप हमसे मिला करे।।


वो मुस्कुराता सा चेहरा,
वो रुप स्रिंगार का दर्पण।
वो पर्तिपल प्यार की बांते,
वो भाव जगत का अर्पण॥


इस सरस सलिल जीवन को,
कभी अपनी लय से सिला करे।
कभी ख्वाव मे, या ख्याल मे,
युं ही आप हमसे मिला करे।


                         मिथिलेश राय

Wednesday, April 20, 2011

परर्छाइया

मैने देखी एक तस्वीर, जिसके होठ फ़ैले थे,
मुझे यकिन है, वो मुस्कुराहट नही थी।
वो आखें फाड.-फाड. कर देख रहा था,
किसी कब्र मे दबे लाश की तरह,
उनको जो उसके मजारं पर आये थे,
फुलो को चढाने के लिए,
उसके आखों से आसुं टपक रहे थे,
मुझे यकिन है, वो गम के नही, खुशी के आसुं थे,
क्युकि वह खुश था, किसी ने मेरी तस्वीर से तो प्यार किया।
उसने अपने कपडॆ. उतार दिये थे, मगर
मुझे यकिन है, वह नंगा नही था,
उसने ढक लिया था अपने बदन को,
किसी के यादो के साये से,
कभी कभी वक्त के चुहे साये को काट देते थे,
फिर भी उसे वह सिल लेता था, प्यार के धागों से,
वह बैठा है एकान्त मे मगर,
मुझे यकिन है, उसके दिल कि यादो मे बन्द है,
ढेर सारे सुख-दुख, किसी की आह, किसी की चाह,
किसी का सुन्दर रुप, किसी की शोख अदायें,
निःसन्देह वह अकेला नही था,
मगर बैठा जरुर था, किसी तख्त पर कुहनी टिकाये,
मुझे यकीन है, वह बैठा नही है,
उसका मन है अशान्त, वह सर्प सा ऎठ्ता था
अपने बदन को रह-रह कर,
उसके बांह फैले थे, किसी को अपने आगोश मे भरने को,
मगर वो नही आयी जो उसके मजार तक आयी थी,
सिर्फ़ फुलो को चढाने के लिये,
मुझे यकीन है, वह कोई तस्वीर नही था,
एक धुधला सा आईना था,
जिसमे मेरी परर्छाइया उभर आयी थी।


                                            मिथिलेश राय

Tuesday, April 19, 2011

जीवन-सत्य

जीवन क्या है? जीने की एक सतत प्रर्क्रिया,
सरल, शास्वत, पर्क्रिति मुलक पर्व्रितिया।
और धर्म? क्लिस्ट, मानव मुलक पर्व्रितिया
हटी होना, दम्भि होना, धर्म नही है।
धर्म क्या है? कर्म की एक सतत प्रर्क्रिया,
मगर मीमासा, दर्शन, पर अधारित
एक रुधीवादी पर्व्रितिया।
जीवन सत्य सरल है, स्वत्र्न्त है,
जो आत्म ग्लानी से भर दे, वह कर्म नही है।
प्रकति क्या है? समयोजन कि एक सतत प्रर्क्रिया,
और मानव इसी का एक हिस्सा है।
और प्रेम? निश्काम, निश्भाव, निस्वार्थ तपस्या,
अगर व्यक्तिगत है, समाजिक नही, वह प्रेम नही है।
प्रेम सर्व्त्र उप्लब्ध है, धर्म कि बध्याताओ से परे,
कर्म प्रकति मुलक हो, तो धर्म कुछ भी नही,
जो समस्त सरिस्टी को समायोजित कर ले,
वही धर्म है, प्रकति है, प्रेम है, जीवन सत्य है।


                                                  मिथिलेश राय

आईना

मेरी तन्हाईओ का साथी आईना,
जिसमे मै अपना चेहरा देखता था,
आज मेरे ही हाथो टूट गया।
टुट्ना तो शायद नियति है,
मगर इस तरह, जैसे अन्नत हीन आकाश से कोई तारा,
खुद अपनी ही आग मे जलता हुआ,
और मन्जिल तक पहुच कर खाक हो गया।
मेरी तन्हाईओ का साथी आईना,
जिसमे मै अपना श्रीगार करता था,
आज मेरे ही हाथो छुट गया।
छुटना तो शायद बन्धन का आभास है, मगर इस तरह, जैसे मां के ग्रभ
से नवजात शिशु,
स्वयं तो स्वतंत्र हो गया, मगर पसीने से लथपथ,
मां की पीडा बेकार हो गयी।
वो बन्धन जो महीनों से एकाकार थी,
कभी बधं पाती है, जीवन पर्यन्त?
पहले तन्हाई, फिर तालाश, साथी, फिर मिलना और बिछडना,
न जाने विधाता का, ये कैसा शणयत्रं है।
                                                                 मिथिलेश राय



सुनापन

मेरी जिन्दगी इतनी सुनी क्यू है,
किसी विधवा की मागं की तरह।
कभी रगं भी भरना चाहू तो,
अपने आप से लडना पडता है,
कैसे भुला दु, कभी रगं भी भरे थे,
आज उजड. गया, सूना पड. गया।
मेरे अल्फाजं इतने कड्वे क्यू,
नीम के पते की तरह,
हमको पता है, यही एक इलाज है,
फिर भी मन स्वीकार नही करता,
मन सरलता ढुढता है, मगर,
कहा से ले आऊ वो मीठापन,
मेरा अस्तितव इतना छिछला क्यु,
नदी के किनारों की तरह,
हर लहर मुझसे कुछ छिन लेती है,
और मै खोकर भी वही,
खडा रहता हु बेबस, बेसहारा
मेरे एहसासों मे इतनी घुटन क्यु,
काई जमी हुई जमीन की तरह,
हर नजर फिसल जाती है,
कोई नही ठहरता, बस थोडी सी दर्द की
परत उघाड देता है,
ठहरी हुई है जिन्दगी, बह रहे है आसुं,
क्या मेरा कसुर सिर्फ़ इतना नही,
की मैने किसी से बेपनाह मुहब्बत की थी।
                                            मिथिलेश राय