किसी के पहले प्यार की पहली
पंक्ति बनना चाहता हु,
मगर कहा ये सभंव है,
मुझ पर तो किसी और का अधिकार है।
जिसके प्यार की न तो मै,
पहली पंक्ति हु, ना ही प्रतिकार,
फिर भी बंधे हुए है,
समाज के बन्धनो को ढोते।
समाजिक बंधनो से बंधी,
गुलामी की जंजीरे,
कंहा समझता है,
मानव मन का अंतर्द्वद।
कानुन की पहली पंक्ति,
स्वत्रंता की बात करती है,
पर कहा मिलती है किसी को स्वत्रंता,
सभी तो इसके बनते ही गुलाम हो गये।
मानव मन की प्रवंचना, उसकी विवेचना,
किताबो मे नही लिखी जा सकती है,
वरना हर इन्सान ही कानुन होता।
राजनैतिक उद्यैश्यो से उठाये गये,
कुछ सवैंधानिक शब्द,
कुछ स्वंत्रता के ढकोसले,
और उनको पुरित करता,
उनकी तुष्टीकरण नीति,
हर इन्सान पर कुछ न कुछ थोपता है,
जो आजदी का नही, गुलामी का द्योतक है।
पैदा होते ही, अनजाने ही बंध जाते है,
तुम्हारे कानुन की बेढीयो से,
आखिर क्यु रोकते हो मेरे पैर,
मै किसी जाति का नही, किसी धर्म का नही,
किसी देश का नही,
मै तो एक इन्सान हु,
अपने अन्त्रमन की बात रखना चाहता हु।
कहा देते हो, हमे रोटी की स्वत्रंता,
वहा तुम्हारे शैतानी हाथ,
अपने शक्ती का पोषण करते है,
कहा देते हो, हमे उन्मुक्त प्यार की स्वत्रंता,
क्युकि वहा तुम्हारा स्वार्थ टकराता है,
क्यु नही बांधते हो, पशुओ को, पंछीओ को,
अपनी कानुनी दाव-पेच मे,
और पैसे से खरीद लेते हो उनका कानुन?
क्यु इन्सान ही दुनिया की सस्ती चीज है,
जिस पर बोझ है तुम्हारे, सैकडो साल पहले,
बनाये गये परम्पराओ का,
मान्यताओ का, और उनकी अनुशंसाओ का,
निर्वाह करने के लिये।