Thursday, May 12, 2011

तथ्य


 निर्बल, निस्तेज, आंसू की बूंद सा
 दुलकता हुआ, क्या यही तथ्य है?
जीवन की मार्मिक छवि,
क्या अब किताबो में कैद रहेगी?
आकाश सी फैली हुई मेरी बाहें,
समुंदर सी गहरी मेरी भावनाए,
समेटना चाहती है अपने आगोश में,
उपवन, चितवन, करुणा, आकर्षण,
मौलिकता जो जीवन में है|
गंभीर, शांत, शीतल मस्तिष्क,
गहरी काली अँधेरी रातों को 
अपना सर्वस्व कब तक मानेगी?
निहारिका की तेज पुंज,
अरुणोदय का प्रकाश,
हरीतिमा की आशा में,
निर्झर जीवन कितने बसंत देखेगा|
बर्फ के मानिंद चमकते चेहरे,
छुते ही पानी-पानी हो जाते है,
पत्थर की मूर्तियों से कब तक,
दया के भीख मांगे जायेगे?
प्रबल अभिव्यक्तियों के आभाव में,
निरर्थक प्रतीत होता जीवन,
और सर्वस्व को त्याग कर,
प्रेम प्रणय का अनुमोदन,
जीवन को पूर्णता नहीं दे पाती है| 
निष्ठुर जगत मन का नहीं,
अभिव्यक्तियों की भाषा समझता है,
मगर अव्यक्त को अभिव्यक्त करना,
कितना कठिन, कितना दुरह है|
                                              मिथिलेश राय

Tuesday, May 3, 2011

एक छोटी कविता


ये खुशियों का पल है, ये मस्ती का मौसम,
कि आजा अधुरा है, अपना मिलन|
वो गीतों की लड़ियाँ, वो मासूम चेहरा,
वो पायल की झनझन, वो माथे पे सेहरा,
कभी हम भी मिले थे सपने में साजन,
कि आजा अधुरा है, अपना मिलन|
जब डोली में बैठी दुल्हन बनी थी,
वो बालों में गजरा, माथें बिंदिया सजी थी,
वो कयामत थी या तेरी तिरछी नजर,
कि आजा अधुरा है, अपना मिलन|
वो मंजिल जिसके हमने सपने बुने थे,
वो धड़कन जिसे हमने हर पल सुने थे,
मुझे मिल गया है, महका है आंगन,
कि आजा अधुरा है, अपना मिलन|
                                      मिथिलेश राय 

प्रेम पथिक


तेरे चेहरे पर उभरते रहे, 
अहंकार और घृणा से भरे भाव,
मै आइना नहीं हु वरना ,
दिखा देता तेरा असली रूप|
तू मेरे व्यथित रूप को,
कभी देख नहीं सकते हो, 
क्युकि तेरे अन्तरम में,
ठहरा हुआ है एक अक्श,
किसी के हँसते चेहरे का,
वक़्त कभी बेपर्दा कर देगा,
उस अक्श की असलियत को,
मगर तब तक तुम खो चुके होगे,
उस वृक्ष की छाया को जो,
तुम्हे अनजाने में प्रेम पथिक,
समझकर अपनी बाँहों का,
सहारा देना चाहता था|
भूल का जब तुम्हे, एहसास होगा,
तुम खुद जाकर देखना,
वो वृक्ष भी वही होगा शाश्वत,
उसकी छाया भी होगी मगर,
कोई और प्रेम पथिक 
उसकी बाँहों में समाया होगा|
                                                मिथिलेश राय