Sunday, December 15, 2013



पलट आओ तुम, हम पलके बिछाये बैठे है,
तुम्हारी याद की हजारो शम्मा जलाये बैठे है,

जमाने की परवाह हमे भी नहीं है, शायद
हमने खुद ही हाथो की लकीरे बनाये बैठे है।

दरवाजे बंद करने की आदत हमे कभी ना थी,
वो जो घर मे बैठे है, बिन बुलाये बैठे है।

क्या खूब निभाई दोस्ती, चांद तारो से पूछ लो,
रात बीतने को है, वो मुझे आजमाये बैठे है।

क्या फर्क होगा तुम्हारे खून मे, हमारे खून मे,
वो जाति,धर्म,नस्ल की जहमत उढाये बैठे है।

नादान दिल की नादानिया इतिहास बदल देती है,
जिंदगी ये क्या कि दिल मे जज्बात दबाये बैठे है।

फितरत मे मेरी मस्ती, मै किसी कि नहीं सुनता,
सपनो कि मेरी महफिल, खुद को भुलाये बैठे है।

क्या दिल निकाल रख दु, तब तेरे समझ आयेगा,
सालो कि ये चुप्पी, आरजू के पंख लगाये बैठे है।
                                               
                                              -मिथिलेश राय

Tuesday, November 26, 2013



यू ही नहीं टूटा हुँ दिल से,
किसी ने एक एक मोती बिखेरे होगे,
यू ही नहीं बनी है दर्द की खूबसूरत तस्वीर, 
बनाने वाले ने हर रंग शिद्दत से उकेरे होगे|

Tuesday, June 18, 2013


जीवन क्या है? जीने की एक सतत प्रर्क्रिया,
सरल, शास्वत, पर्क्रिति मुलक पर्व्रितिया।
और धर्म? क्लिस्ट, मानव मुलक पर्व्रितिया
हटी होना, दम्भि होना, धर्म नही है।
धर्म क्या है? कर्म की एक सतत प्रर्क्रिया,
मगर मीमासा, दर्शन, पर अधारित
एक रुधीवादी पर्व्रितिया।
जीवन सत्य सरल है, स्वत्र्न्त है,
जो आत्म ग्लानी से भर दे, वह कर्म नही है।
प्रकति क्या है? समयोजन कि एक सतत प्रर्क्रिया,
और मानव इसी का एक हिस्सा है।
और प्रेम? निश्काम, निश्भाव, निस्वार्थ तपस्या,
अगर व्यक्तिगत है, समाजिक नही, वह प्रेम नही है।
प्रेम सर्व्त्र उप्लब्ध है, धर्म कि बध्याताओ से परे,
कर्म प्रकति मुलक हो, तो धर्म कुछ भी नही,
जो समस्त सरिस्टी को समायोजित कर ले,
वही धर्म है, प्रकति है, प्रेम है, जीवन सत्य है।

                                                  मिथिलेश राय

Wednesday, March 14, 2012

जीवन सत्य


जीवन क्या है? जीने की एक सतत प्रर्क्रिया,
सरल, शास्वत, पर्क्रिति मुलक पर्व्रितिया।
और धर्म? क्लिस्ट, मानव मुलक पर्व्रितिया
हटी होना, दम्भि होना, धर्म नही है।
धर्म क्या है? कर्म की एक सतत प्रर्क्रिया,
मगर मीमासा, दर्शन, पर अधारित
एक रुधीवादी पर्व्रितिया।
जीवन सत्य सरल है, स्वत्र्न्त है,
जो आत्म ग्लानी से भर दे, वह कर्म नही है।
प्रकति क्या है? समयोजन कि एक सतत प्रर्क्रिया,
और मानव इसी का एक हिस्सा है।
और प्रेम? निश्काम, निश्भाव, निस्वार्थ तपस्या,
अगर व्यक्तिगत है, समाजिक नही, वह प्रेम नही है।
प्रेम सर्व्त्र उप्लब्ध है, धर्म कि बध्याताओ से परे,
कर्म प्रकति मुलक हो, तो धर्म कुछ भी नही,
जो समस्त सरिस्टी को समायोजित कर ले,
वही धर्म है, प्रकति है, प्रेम है, जीवन सत्य है।


                                                  मिथिलेश राय

Thursday, September 1, 2011

तथ्य

 निर्बल, निस्तेज, आंसू की बूंद सा
 दुलकता हुआ, क्या यही तथ्य है?
जीवन की मार्मिक छवि,
क्या अब किताबो में कैद रहेगी?
आकाश सी फैली हुई मेरी बाहें,
समुंदर सी गहरी मेरी भावनाए,
समेटना चाहती है अपने आगोश में,
उपवन, चितवन, करुणा, आकर्षण,
मौलिकता जो जीवन में है|
गंभीर, शांत, शीतल मस्तिष्क,
गहरी काली अँधेरी रातों को 
अपना सर्वस्व कब तक मानेगी?
निहारिका की तेज पुंज,
अरुणोदय का प्रकाश,
हरीतिमा की आशा में,
निर्झर जीवन कितने बसंत देखेगा|
बर्फ के मानिंद चमकते चेहरे,
छुते ही पानी-पानी हो जाते है,
पत्थर की मूर्तियों से कब तक,
दया के भीख मांगे जायेगे?
प्रबल अभिव्यक्तियों के आभाव में,
निरर्थक प्रतीत होता जीवन,
और सर्वस्व को त्याग कर,
प्रेम प्रणय का अनुमोदन,
जीवन को पूर्णता नहीं दे पाती है| 
निष्ठुर जगत मन का नहीं,
अभिव्यक्तियों की भाषा समझता है,
मगर अव्यक्त को अभिव्यक्त करना,
कितना कठिन, कितना दुरह है|
                                              मिथिलेश राय

Monday, July 18, 2011

सुनापन

मेरी जिन्दगी इतनी सुनी क्यू है,
किसी विधवा की मागं की तरह।
कभी रगं भी भरना चाहू तो,
अपने आप से लडना पडता है,
कैसे भुला दु, कभी रगं भी भरे थे,
आज उजड. गया, सूना पड. गया।
मेरे अल्फाजं इतने कड्वे क्यू,
नीम के पते की तरह,
हमको पता है, यही एक इलाज है,
फिर भी मन स्वीकार नही करता,
मन सरलता ढुढता है, मगर,
कहा से ले आऊ वो मीठापन,
मेरा अस्तितव इतना छिछला क्यु,
नदी के किनारों की तरह,
हर लहर मुझसे कुछ छिन लेती है,
और मै खोकर भी वही,
खडा रहता हु बेबस, बेसहारा
मेरे एहसासों मे इतनी घुटन क्यु,
काई जमी हुई जमीन की तरह,
हर नजर फिसल जाती है,
कोई नही ठहरता, बस थोडी सी दर्द की
परत उघाड देता है,
ठहरी हुई है जिन्दगी, बह रहे है आसुं,
क्या मेरा कसुर सिर्फ़ इतना नही,
की मैने किसी से बेपनाह मुहब्बत की थी।
                                          
                                                  मिथिलेश राय

Tuesday, June 21, 2011

कवि की कल्पना

सौन्दर्य की प्रतिमान, 
वो विश्व कमल की म्रिदुल मधुकरी।
वो अन्नत रह्स्यो की मुर्ति,
वो स्वर्ग लोक की चंचल परी।।
एक रात चुपके से चलकर,
मेरे पास आई थी।
बहुत नजदीक थी मेरे,
मगर एक गहरी खाई थी॥
उस पार पहुचना मेरे,
वश की बात नही थी।
पर कवि की उन्मत भावों के,
रुकने की रात नही थी।।
लेखनी की नौका से,
कवि जब उस पार गया।
एह्सास हुआ भोलेपन का,
खुद से ही मै हार गया।।
वह तो बस कल्पना थी,
कवि ह्रदय की छवि थी।
जाते जाते कहती गयी,
शायद वो भी कवि थी।।
भाव जगत मे ढुढो मुझको,
मै हरदम भावों मे मिलती।
तेरे ह्रिदय की कल्पना की,
धुप और छावों मे मिलती।।
निज परीवेश मे तुमको,
ऐसा एहसास नही मिलेगा।
जब भी मेरे पास आओगे,
कोई पास नही मिलेगा।।
विश्व के तम का सुन्दरतम रहस्य,
मै कल्पना लोक की परी हु।
मै ही कविता, मै ही सरिता,
कवि ह्र्दय मे भाव भरी हुं॥
मुझे देख-देख कर कवियों ने,
कितने ही गीत सजाये है।
पर जिसने कोशिश की छुने की,
मुझे ढुढ नही पाये है॥
यह असीम जगत माया है,
तेरे अन्दर है जग सारा।
यथार्थ की भुमी पर,
कुछ भी नही है तुम्हारा॥
मत पकडो किसी को भी,
वो तितली बन उड. जायेगा।
बस फुल बन खिल जाओ,
तेरे चारो ओर मंडरायेगा॥
कवि तेरा क्या, तुम तो,
भाव भंवर मे लहराते हो।
सौन्दर्य की प्रतिमा के,
न जाने कितने रुप सजाते हो॥
तेरी लेखनी की छाया मे,
कितने ही संगीत बने।
कितने ही दिल टुट गये,
कितने ही मनमीत बने॥
फुलो ने स्रिगार किया,
भौरों को उपहार मिला।
मन सवेदनशील हूआ,
बागों को बहार मिला॥
लौट आया मै वापस अपनी,
गरिमा कि छाया मे।
पर न जाने क्यु बसती है,
कल्पना मेरी काया मे॥
                मिथिलेश राय