Sunday, December 15, 2013



पलट आओ तुम, हम पलके बिछाये बैठे है,
तुम्हारी याद की हजारो शम्मा जलाये बैठे है,

जमाने की परवाह हमे भी नहीं है, शायद
हमने खुद ही हाथो की लकीरे बनाये बैठे है।

दरवाजे बंद करने की आदत हमे कभी ना थी,
वो जो घर मे बैठे है, बिन बुलाये बैठे है।

क्या खूब निभाई दोस्ती, चांद तारो से पूछ लो,
रात बीतने को है, वो मुझे आजमाये बैठे है।

क्या फर्क होगा तुम्हारे खून मे, हमारे खून मे,
वो जाति,धर्म,नस्ल की जहमत उढाये बैठे है।

नादान दिल की नादानिया इतिहास बदल देती है,
जिंदगी ये क्या कि दिल मे जज्बात दबाये बैठे है।

फितरत मे मेरी मस्ती, मै किसी कि नहीं सुनता,
सपनो कि मेरी महफिल, खुद को भुलाये बैठे है।

क्या दिल निकाल रख दु, तब तेरे समझ आयेगा,
सालो कि ये चुप्पी, आरजू के पंख लगाये बैठे है।
                                               
                                              -मिथिलेश राय

2 comments:

  1. मिथलेश जी,
    नमस्कार !
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    प्रियंका शर्मा
    (शब्दनगरी संगठन)
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